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माता सीता

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 जीवन का पाथेय यदि भगवान श्रीराम हैं तो उन तक पहुँचने का मार्ग केवल माता सीता हैं।  वह श्रीराम की लीला सहचरी हैं।  माता के चरणों की वन्दना करते हुए मानस में कहा गया है - सती सिरोमनि सिय गुनगाथा।   सोइ गुन अमल अनुपम गाथा।।  सीता जी के कर्म और धर्म के संतुलन में समन्वय और सहयोग के कारण ही श्रीराम ने जीवन में नायक की मर्यादा स्थापित की। प्रभु श्रीराम सदैव ही विश्वास करने योग्य हैं। वह मर्यादा के प्रतिमान है इसलिए भगवान है।  जबकि माता स्वतंत्र हैं विदेह सुता हैं।  इसलिए वह भगवती हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की अर्द्धांगिनी माता सीता को धार्मिक गाथाओं में सौभाग्य की देवी और माता लक्ष्मी का अवतार भी कहा गया है।  शक्ति, सेवा, संयम, समर्पण एवं सद्भाव से परिपूर्ण माता सीता का जीवन नारी सशक्तीकरण एवं आदर्श का प्रतीक तथा संपूर्ण मानव जाति के लिए प्रेरणा का स्रोत है।   माँ जानकी भारतीय नारी का आदर्श तथा त्याग, तपस्या, संयम, साधना, धैर्य और प्रेम की प्रतिमूर्ति हैं।  माता सीता ने जीवन की चुनौतियों, संघर्षों एवं क्लेशों का साहसपूर्वक सामना करते हुए अपने सभी कर्तव्यों का पालन पूर्ण समर्पण के

फाँसी की बलिवेदी पर चढ़ने वाले बिहार के प्रथम शहीद रामदेनी सिंह

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आज शहीद रामदेनी सिंह जी का शहीदी दिवस है।  वर्ष 1904 में मलखाचक, दिघवारा, सारण में जन्मे रामदेनी सिंह जी की काकोरी कांड में महत्वपूर्ण भूमिका रही।  आप बिहार के प्रथम स्वतन्त्रता सेनानी हैं जिन्हें फांसी की सजा हुई थी।  सरदार भगत सिंह ने आपकी बहादुरी की सराहना करते हुए उन्हें  सारण का एरिया कमांडर मनोनीत किया था।  आपको शत शत नमन ! साभार- दैनिक भास्कर ०४.०५.२०२० जरा याद करो कुर्बानी: बिहार के प्रथम शहीद थे सारण के रामदेनी सिंह भारत माता का जयघोष कर फांसी के फंदे को चूम कर झूल जाने वाले रामदेनी सिंह थे “वहां न कोई तुरबत है और न इंकलाबे-मशाल। उनके मजारों पर दिलकश नजारा है ‘ राणा परमार’  जो वतन के साथ मक्कारी की और आज है माला माल जी हां सारण के दिघवारा प्रखंड का मलखाचक गांव भी नहीं जानता कि बिहार में इंकलाब जिंदाबाद! वंदेमातरम!! भारत माता की जय का जयघोष कर फांसी के फंदे को चूम कर झूल जाने वाला और कोई नहीं सारण शेर ठाकुर रामदेनी सिंह था। लाहौर षड्यंत्र, चौराचौरी कांड, काकोरी षड्यंत्र से उद्वेलित ठाकुर रामदेनी सिंह के धमनियों का लहू उबलने लगा और अपने मित्र व वैशाली एरिया कमांडर योगेन्द्र शुक्

हनुमान जयंती

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 आज हनुमान जयंती है। हनुमानजी सर्वप्रिय देवता है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के अनन्य भक्त के रूप में आप सर्व पूजनीय है। आज ही के दिन माता अंजनी की गोद में बजरंग बली बालरूप में प्रकट हुए थे। यह अद्भुत संयोग है कि चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी पर प्रभु श्रीराम जन्मे और उनके अनन्य भक्त पूर्णिमा की तिथि को।  राम भक्त हनुमान जी निर्भयता, विश्वास के देवता हैं। यह उनका स्वयं एवं प्रभु के ऊपर विश्वास ही था जो पृथ्वी की जीवन धारा के प्रतीक सूर्य को मुंह में रख लेने से लेकर समुद्र लांघने, ताड़का वध तक के काम उनसे करवा देता है। डर के आगे जीत है। डर को जीतने की कला में वे निपुण हैं। हनुमान जी से यह सीखा जा सकता है कि जिसने भी उनके मन में भय पैदा करने की कोशिश की, लेकिन वे अपनी बुद्धि और शक्ति के बल पर उनको हरा कर आगे बढ़ गए। डर को जीतने का पहला प्रबन्धन सूत्र हनुमान जी से सीखा जा सकता है कि अगर आप विपरीत परिस्थितियों में भी आगे बढ़ना चाहते हैं तो बल और बुद्धि दोनों से काम लेना आना चाहिए। जहां बुद्धि से काम चल जाए वहां बल का उपयोग नहीं करना चाहिए।  रामचरित मानस के सुंदरकांड का प्रसंग है “सीता की खोज मे

शब्द यात्रा

 *आज  "नैहर", "पीहर" और  "मायका" शब्दों  से  मिलिए, आपको गुज़रा ज़माना याद करके अच्छा  लगेगा*  ! . . .नैहर  . . 'नैहर' का मतलब होता है- ' पिता का घर'  यानी  मायका  ! नैहर शब्द संस्कृत के 'ज्ञातिगृह'  से बना है ! ' ज्ञा'  धातु में  'क्तिन' प्रत्यय लगने से  'ज्ञातिगृह'  बना  जिसका अर्थ होता है -  पितृ-गृह, जान-पहचान वाले, सगे-संबंधी,  नाते-रिश्तेदार आदि आदि ! ‘ज्ञा’  धातु  में  ‘ जानने ‘  का भाव निहित है, मतलब  कि  जिसके बारे में हमें ‘ ज्ञात’ है यानी  जो हमारे लिए  ‘ अज्ञात’  या  ‘अंजान’ नहीं है ! इस  ‘ ज्ञान',  जानकारी, में व्यक्ति, स्थान, वस्तु,  से लेकर ज्ञानेन्द्रियों  से होने  वाले  ‘एहसास’  भी शामिल  होते हैं ! तात्पर्य  यह है कि ‘ज्ञाति ‘  शब्द में वे  सब चीजे  आती है,  जिन्हें हम भलीभाँति जान  चुके है ! जब यह शब्द ‘ गृह’  शब्द का जुड़  कर प्रयोग  में आया तो,  इसका  अर्थ  उन  व्यक्तियों के समूह से माना  गया, जो  हमसे  विशेषरूप से  सम्बन्धित  है, जो हमारे  रिश्तेदार है और  एक  ही ‘ घर’ मे रहते  हैं !

अपनी देवनागरी लिपि - केदारनाथ सिंह

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 अपनी देवनागरी लिपि ज्ञानपीठ ,  साहित्य अकादेमी व अन्य कई महत्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित कवि केदारनाथ सिंह जी के स्मृति दिवस पर नमन !    और भाषा जो मैं बोलना चाहता हूँ  मेरी जिह्वा पर नहीं  बल्कि दांतों के बीच की जगहों में  सटी है।                                                        (फर्क नहीं पड़ता)      ~केदारनाथ सिंह ••• यह जो सीधी-सी, सरल-सी अपनी लिपि है देवनागरी इतनी सरल है कि भूल गई है अपना सारा अतीत पर मेरा ख़याल है 'क' किसी कुल्हाड़ी से पहले नहीं आया था दुनिया में 'च' पैदा हुआ होगा किसी शिशु के गाल पर माँ के चुम्बन से! 'ट' या 'ठ' तो इतने दमदार हैं कि फूट पड़े होंगे किसी पत्थर को फोड़कर 'न' एक स्थायी प्रतिरोध है हर अन्याय का 'म' एक पशु के रँभाने की आवाज़ जो किसी कंठ से छनकर  बन गयी होगी 'माँ"! स' के संगीत में संभव है एक हल्की-सी सिसकी सुनाई पड़े तुम्हें। हो सकता है एक खड़ीपाई के नीचे किसी लिखते हुए हाथ की  तकलीफ़ दबी हो कभी देखना ध्यान से  किसी अक्षर में झाँककर वहाँ रोशनाई के तल में एक ज़रा-सी रोशनी तुम्हें हमेशा

कांशीराम

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आज प्रख्यात भारतीय राजनीतिज्ञ एवं भारतीय समाज के एक बड़े वर्ग के अधिकारों एवं कर्तव्यों के लिए आवाज बुलंद करने वाले मान्यवर #कांशीराम  (15 मार्च, 1934 – 09 अक्टूबर 2006) की जन्म जयंती हैं ।   #कांशीराम जी सत्ता में वंचितों की भागीदारी के समर्थक थे। पर आधुनिक रुप में नहीं जहां दलितों के आवाज के नाम पर समाज में #कपोल-कल्पित अवधारणाएं स्थापित की जा रही है ।  #कथित मनुवादी भय दिखाकर सनातन समाज को बांटने का कार्य किया जा रहा है। कांशीराम जी ने #संतुलित धारा के साथ कार्य किया। वे अविभाजित भारत के उस प्रांत में जन्में थे जहां अनुसूचित जातियों की एक बड़ी आबादी निवास करती थीं। उन्होंने सरकारी नौकरियों में इस वर्ग को आवाज देने हेतु बामसेफ का गठन किया।  आज #दलित विमर्श के नाम पर #सनातन परंपराओं को विभाजनकारी मानसिकता के तहत गाली देने का षड्यंत्र चल रहा है ।  जरूरत है इससे बचने की। क्योंकि सामाजिक सुधार का मतलब उत्थान होता है न किसी वर्ग को हर वक्त गाली देना।  इससे विरोध और संघर्ष पनपता है। समाज सार्थक संघर्ष एवं समन्वय से मजबूत होता है। जय भीम, जय मीम से ज्यादा जरूरी है #जय #भारत की ।  इसी संदर्भ

साहित्य और बाज़ार

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साहित्य अब बाजार की गिरफ़्त में आता जा रहा है। साहित्य सिर्फ़ होर्डिंग, बैनर तक सिमटता जा रहा है।  यह सिस्टम और बाजार का घालमेल है।  उदारीकरण के बाद से साहित्य में बाजार का निर्णायक दख़ल शुरू हुआ।  अब लेखक पहले की भांति बाजार का प्रतिरोध करने की बजाय उससे जुगत भिड़ाने लगे। साहित्य और बाज़ार के घालमेल से लेखन उनके लिए व्यवहार, साधना, पीड़ा, भोग, यथार्थ से अधिक शौक का विषय होने लगा।  लेखन का एकमात्र ध्येय चर्चित होना रह गया। ऐसे में प्रतिबद्धता और सरोकार जैसे शब्द गौण हो गए। इसमें प्रकाशक भी शामिल है।  साहित्य के नाम पर साहित्य से इतर सब कुछ।  कुछ दिनों पूर्व मैं एक लेखन प्रतियोगिता में निर्णायक के रूप में शामिल था।  यह संस्था पिछले पाँच सालों से हिन्दी साहित्य के प्रसार हेतु गतिविधियाँ आयोजित करा रही है।प्रतियोगिता में मैंने यह देखा कि अधिकांश प्रविष्टियाँ रिश्तों के विघटन, अनैतिक संबंधों पर ही प्रेषित किए जाते हैं। हम सभी जानते है साहित्य का एक स्थायी भाव बोध होता है।  इसमें समाज, देश और काल का ऐतिहासिक  भाव बोध भीछुपा होता है। पर इस प्रकार के नकारात्मक भाव बोध से हम किस प्रकार के समाज